क्या है संसद सदस्यों का निलंबन और इसकी प्रक्रिया, क्योंकि यह वास्तव में अनुशासन हीनता को दृष्टिगत रखते हुए कुछ ऐसी विधि सम्मत प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से इन सारी चीजों का नियमन होता है, लेकिन उस प्रक्रिया का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी, तो क्या है पूरी प्रक्रिया हम इस प्रक्रिया को समझेंगे और क्या ये पहली बार हुआ है या इससे पहले भी यह घटना देखने को मिली है तो आज संदर्भ को हम जानेगें, कि संसद सदस्यों का हाल ही में जो निलंबन हुआ है उसको हम किन बिंदुओं के अंतर्गत कवर करेंगे।
- चर्चा में क्यों
- निलंबन के नियम वास्तव में क्या हैं?
- निलंबन की शर्तें क्या होती है
- न्यायालय का क्या इसमें हस्तक्षेप हो सकता है। अगर हो सकता है या कभी हुआ है तो उसको देखेंगे।
चलिए सबसे पहले देखते हैं। यह खबर चर्चा में क्यों है। चर्चा में यह है कि 18 दिसंबर वो दिन था। जब दोनों सदनों से अगर मिलाकर संख्या देखी जाए तो 78 सांसद को निलंबित कर दिए जाता हैं। उनके ऊपर अनुशासनहीनता और अमर्यादित व्यवहार का आरोप लगाया जाता है। संसद की कार्यवाही को बाधित करने का आरोप लगाया जाता है और उनको निलंबित किया जाता है। लोक सभा से अगर बात करें तो 33 सांसद थे जिसमें 30 सांसद ऐसे थे जिनको निलंबित किया गया और तीन एक अलग श्रेणी के अंतर्गत आते थे और जो 30 सांसद हैं उनको पूरे सत्र के लिए निलंबित किया गया और जो तीन सांसद है उनको अगर लोक सभा की बात करें तो एक प्रिविलेज कमेटी है उसके पास इनकी रिपोर्ट जाएगी और वो तय करेगी कि इनका निलंबन किस अवधि के लिए होगा। बात अगर राज्यसभा की करें तो वहां भी 45 सांसदों का निलंबन होता है। वहां 34 सदस्य जो है वो पूरे सत्र के लिए और वहां 11 सांसद जो है वो प्रिविलेज कमेटी के पास विशेषाधिकार समिति के पास उनका मामला जाता है। अगर हम बात करें तो लोक सभा से कुछ दिन पूर्व 14 दिसंबर को भी 13 सांसदों का निलंबन हुआ था। इस प्रकार अगर ये टोटल हम इस सत्र की बात करें। शीतकालीन सत्र की बात करें तो इसमें टोटल जो सांसदों का निलंबन है वो संख्या पहुंचती है। 92 और अब तक के भारतीय स्वतंत्रता के बाद अगर देखा जाए तो ये टोटल संख्या सर्वाधिक है। केवल लोक सभा की अगर बात की जाए तो राजीव गांधी के समय वो सर्वाधिक थी।
इस लिहाज से ये कुछ तथ्य है। ये आपको ध्यान रखना है। इस कारण ये फिर से चर्चा में विषय बना हुआ है तो हमारे लिए परीक्षा के लिहाज से ये संख्याए इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इस पूरी प्रक्रिया में उस विधि को समझना, उस नियम को समझना, जिसके तहत इन सांसदों का निलंबन होता है। अब क्या है वो नियम, उस पर थोड़ा विचार करते हैं तो लोक सभा और राज्य सभा इन दोनों के लिए अलग अलग नियमों का निर्धारण किया गया है।
सबसे पहले हम विचार करते हैं। लोकसभा में वो नियम कौन से हैं तो लोक सभा में अगर हम बात करें तो इसकी अपनी एक नियम की संहिता बनाई गई है ताकि लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही को ठीक ढंग से संचालित किया जा सके और देश हित में राष्ट्र हित में कानून बन सके। इसके लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है तो इस नियम में जो नियम 373 है वो इससे संबंधित है। क्या कहता है नियम 373 तो यह कहता है कि अगर लोक सभा में जब भी सदन की कार्यवाही चल रही हो। ऐसे में अगर कोई भी सांसद अमर्यादित या ऐसा आचरण करता है जो उस कार्यवाही को बाधित करती है तो ऐसे में यहां के पीठासीन अधिकारी अर्थात लोक सभा अध्यक्ष जो वर्तमान में ओम बिरला जी थे तो ऐसे में उस पीठासीन अधिकारी के द्वारा इस अमर्यादित व्यवहार के कारण बाधित व्यवहार के कारण उनको सदन से बाहर जाने का निर्देश दिया जाएगा और इस निर्देश का उनको पालन करना होगा। अगर इसका अनुपालन वो तुरंत नहीं करते हैं तो उसके लिए आगे की भी प्रक्रिया है और उस दिन की जो बैठक का शेष हिस्सा होता है उस पूरे हिस्से के लिए वो अनुपस्थित रहेंगे। इस निर्देश के पालन के बाद, यदि वह पालन न करे तो क्या होगा। अध्यक्ष फिर नियम 374 उसके लिए बनाया गया है। उसके तहत उनपर कार्यवाही कर सकते हैं। मतलब 373 एक तरह से हम कहें कि उस दिन के लिए वो सस्पेंड हो जाएंगे, वो निलंबित हो जाएगे। 374 क्या कहता है तो नियम 374 कहता है कि यदि सांसद द्वारा जानबूझकर बार बार व्यवधान डाला जाए। मतलब कोई एक अपराध होता है कि हमसे अनजाने में होता है और एक अपराध होता है। हम बार बार जान के मंशा पूर्ण तरीके से कर रहे हैं तो अगर जानबूझ के बार बार व्यवधान उत्पन्न किया जाएगा तो उसके लिए नियम 374 के तहत पीठासीन अधिकारी सांसदों के नाम का उल्लेख करेंगे। प्वाईंट आउट करेंगे कि हां वही अमुक अमुक व्यक्ति है। यह बार बार व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं तो उसके लिए क्या होगा कि फिर सदन जो है वो सांसद कोष से सत्र से अधिक अवधि के लिए भी निलंबित कर सकती है। वैसे तो सामान्य निलंबन जो होता है वो जो शेष सत्र जो होता है उसके लिए होता है जैसे शीतकालीन सत्र है तो शीतकालीन सत्र का जितना सत्र है उसमें पांच दिन या जो भी उससे कम अगर दिन है तो उसके लिए वो निलंबन माना जाता है। अब देखें जो निलंबन का यह भी प्रस्ताव पेश करेंगे और इस प्रस्ताव के तहत फिर बाद में उस पर सदन उस पर विचार करेगी और ये निलंबन की प्रक्रिया सदन में अगर उस प्रस्ताव को अपना लिया जाएगा तो पूर्ण मानी जाएगी। इसके अलावा लोक सभा की अगर बात करें तो दिसंबर 2001 में 374aए नियम इसमें और शामिल किया गया और इस नियम के शामिल करने के बाद लोकसभा जो अध्यक्ष है, उनकी शक्ति में थोड़ी और बढ़ोतरी हुई। इसमें इसका उद्देश्य पहले क्या था। ये जानते है। इस प्रस्ताव को अपनाने का मुख्य कारण ये था। कि जो प्रस्ताव अपनाने की आवश्यकता थी कि जब तक सदन उस प्रस्ताव को अपनाएगा नहीं निलंबन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं होगी तो उसको हटाते हुए यहां पर अध्यक्ष जो है। अगर एक सांसद के नाम को देगा तो अपने आप आटोमैटिक स्वचालित रूप से पांच दिन या सत्र का शेष भाग मतलब जितना दिन बचा है। सत्र में इसमें से जो भी कम होगा। मान लीजिए सदन के सत्र में बचे हुए जो दिन है वो तीन ही दिन बचे हैं और यहां पर पांच दिन है तो इसमें से तीन दिन को मान लिया जाएगा तो तीन दिन के लिए वो निलंबित मान लिया जाएगा। तो यह लोक सभा को 374 के जो नियम है वो विषय थोड़ी सी पावर देता है। अब बात राज्य सभा की करें, तो उच्च सदन में भी ऐसे नियम बनाए गए हैं। इसमें नियम 255 इसमें क्या है। इसमें जो राज्य सभा का सभापति है वह 373 के अंतर्गत, अगर कोई अमर्यादित आचरण करता है सांसद, तो उसको बाहर जाने का निर्देश देता है कि वह उस दिन की कार्यवाही तक निलंबित रहेगा। वो बाहर चला जाएगा। नियम 256 क्या कहता है तो यह कहता है कि अगर कोई बार बार नियमों का दुरुपयोग कर रहा है।
बार बार व्यवधान उत्पन्न कर रहा है। सभापति के अधिकार की अवहेलना कर रहा है तो ऐसी दशा में फिर सभापति महोदय जैसे 374 और 374ए में लोकसभा के लिए प्रोविजन बनाया या था। वैसे ये यहां पर सभापति महोदय के द्वारा जो राज्य सभा के सभापति पदेन सभापति राष्ट्र के उपराष्ट्रपति होते हैं, आप सभी को पता है तो जगदीश धनकर साहब ने भी ये कार्य किया है। उसके बाद सदन सदस्य कोष से सत्र से अधिक अवधि के लिए निलंबित करने का एक प्रस्ताव सदन के पास जाएगा। अब सदन की जिम्मेदारी है कि उस प्रस्ताव को अगर वो अपना लेता है तो उनका निलंबन उससे अधिक अवधि के लिए भी हो सकता है तो यह प्रक्रिया लोक सभा और राज्य सभा के लिए बनाई गई है। अब यहां पर अगर दोनों को कंपेयर करें तो आप देखेंगे। लोक सभा के विपरीत जो नियम 374ए हैं तो वहां पर राज्य सभा को कुछ विशेष शक्तियां नहीं है। अर्थात राज्य सभा बिना प्रस्ताव के निलंबन नहीं कर सकती है। यहां पर प्रस्ताव होगा प्रस्ताव का को अपनाया जाएगा। तब निलंबन होगा लेकिन लोक सभा के पास ही शक्ति थोड़ी ज्यादा है।
अब देखिए यह इस प्रकार की घटना क्या पहली बार हुई तो नहीं आपको बताया गया भूमिका के दौरान ही के 1989 में एक बिल था जो राजीव गांधी उसमें प्रधानमंत्री थे। उस समय उससे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से संबंधित एक रिपोर्ट थी। एक आयोग बनाया गया था। उसका नाम था ठक्कर आयोग, जस्टिस एमपी ठक्कर की अध्यक्षता में उसने जब अपनी रिपोर्ट सौंपी 1989 में, तो उस समय उसका विरोध काफी होने लगा और ऐसी दशा में तिरसठ लोक सभा के सदस्यों को उस समय भी निलंबित किया गया था तो यह इतिहास में पहली बार नहीं यह घटना है। इससे पहले भी यह हो चुका है और केवल लोकसभा सदस्यों के लिहाज से अगर बात करें तो यह उस समय आंकड़ा वर्तमान आकड़े से बड़ा है, लेकिन संपूर्ण रूप से अगर देखा जाए तो 92 की सदस्यता एक सत्र में सबसे बड़ी है तो दो तथ्यों को आप याद रखिएगा।
अब बात करते है कि निलंबन की शर्तें क्या होती है, निलंबन की अधिकतम अवधि जो होती है। सामान्य निलंबन की हम बात कर रहे तो वहां पर शेष सत्र के लिए होती है। वहीं की अगर पांच दिन या उससे कम जो भी होगा उस उतने दिन के लिए निलंबित मांने जाते हैं। उस दौरान क्या होता है उस दौरान उस पूरे कक्ष में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। किसी भी समिति किसी भी बैठक में वो सम्मिलित नहीं होंगे सांसद महोदय, साथ ही कोई भी चर्चा होगी। किसी प्रकार के नोटिस देने के वो पात्र नहीं माने जाएंगे। इसके अलावा अपने प्रश्नों का उत्तर पाने का अधिकार वो खो देते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि एक सांसद के तौर पर एक सदन में मौजूद होने पर जो अधिकार उनको प्राप्त होते हैं, वो सारे अधिकार उस सस्पेंडेड ड्यूरेशन में उनको नहीं प्राप्त होते हैं। एक प्रकार से यह जो सदन के अंदर वाले अधिकार है उसे वो कुछ दिन के लिए महरूम होते हैं।
अब क्या प्रश्न उठता है? न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकता है कि नहीं कर सकता है तो संविधान का अनुच्छेद 122 कहता है कि संसदीय कार्यवाही पर न्यायालय किसी भी प्रकार न्यायालय के समक्ष सवाल नहीं उठाया जा सकता है, लेकिन क्या कभी सवाल उठा?
क्या कभी ऐसा मामला आया कि सवाल उठाया गया, तो जी हाँ, न्यायालयों ने विधायिका के प्रक्रियात्मक कामकाज में हस्तक्षेप किया और इसका उदाहरण कम है तो महाराष्ट्र विधान सभा का चुनाव हुआ। उसमें क्या हुआ कि 2021 का ये मामला है जब मानसून सत्र में 12 भाजपा के विधायकों को निलंबित कर दिया गया तो एक साल का यह निलंबन था। इसके बाद मामला पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में तो सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च न्यायालय माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यहां पर मानसून सत्र का जो शेष समय है उसके बाद अगर किसी भी प्रस्ताव को हम उस प्रस्ताव को फिर से अगर प्रभावी रूप से मान रहे हैं तो यह ठीक नहीं है, वो और प्रभावी होगा और यहां पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया तो ये उदाहरण हमको मिलता है कि अनुच्छेद 122 के अलावा सुप्रीम कोर्ट इसमें हस्तक्षेप कर सकती है।
विशेष परिस्थितियों में यहां इस उदाहरण से यह बात पुष्ट होती है। अब मामला यहां पर यह उठता है कि क्या ये कार्यवाही सही है या गलत है तो देखिए यहां एक प्रश्न विचारणीय ये है कि कोई भी कार्यवाही कोई भी नियम कानून किसी भी प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाए जाते हैं। अब यहां पर एक संतुलन बनाना बहुत आवश्यक है। नियम का उपयोग करते हुए अगर हम कोई काम करते हैं। व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए तो वो ठीक है, लेकिन नियम का अगर दुरुपयोग होगा तो वो संतुलन कहीं न कहीं गड़बड़ होगा। यहां अगर बात करें तो पीठासीन अधिकारी अगर नियमों का इस्तेमाल अपने सर्वोच्च अधिकार का प्रवर्तन करते हैं। उस कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाने के लिए तो ये तो बिल्कुल ठीक व्यवस्था है क्योंकि अगर सदन चलेगा नहीं तो नियम कानून हमारे राष्ट्रहित में बनेंगे कैसे, उनका पालन कैसे होगा, लेकिन अगर पीठासीन अधिकारी उस सदन को काम चलाने से किस सीमा को क्रॉस करते हैं और उस पर ऐसी कार्यवाही करते हैं कि वो उनके प्रभुत्व को दर्शाने लगे तो यह जरूर चिंता की बात है। ऐसे में हमें ध्यान रखना होगा कि सदन की कार्यवाही ठीक चले नियमों के दायरे में चले लेकिन लोकतंत्र जिसके लिए पक्ष विपक्ष दोनों का संसलेशन आवश्यक है। यह संतुलन बना रहे हैं। उम्मीद है आपको ये संदर्भ समझ में आया होगा। आप भी अपनी राय दें कि ये प्रक्रिया आपको ठीक लगती है कि नहीं
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